Some useful mantras from Durga Saptshati



Some Useful Mantras from Durga Saptshati:




* Durga Saptashati which is also known as Devi Mahatmya and Chandi Path is a Hindu religious text describing the victory of the Goddess Durga over the demon Mahishasura.
*It is part of the Markandeya Purana, written by sage Markandeya.
*A ritualistic reading of Durga Saptashati is part of the Navratri celebrations in the honor of the Goddess Durga.
* Saptashati is a sanskrit word. Sapt means 7 and Shat means 100. The text contains Saptashata i.e. 700 verses and because of that the whole composition is known as Durga Saptashati.
*The seven hundred verses are arranged into 13 chapters.
*For ritual reading purposes a number of subsidiary texts are appended before and after of 700 verses.
*Total 700 Ahuti i.e. offering to Goddess Durga through sacred fire are made during Chandi Homa.

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Durga Saptashati is significant composition to perform Chandi Homa which is one of the most significant Homa(s) done to gain health and to conquer over enemies. Chandi Homa is performed while chanting verses from Durga Saptashati. Total 700 Ahuti i.e. offering to Goddess Durga through sacred fire are made during Chandi Homa.

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Durga Saptashati (book) contains following chapters –
1** Introduction
2** Saptashloki Durga
3** Durgashtottara Shatanama Stotram
4** Durga Saptashati Path Vidhi

      a--Devi Kavacham
      b--Argala Stotram
      c--Keelakam
      d--Vedoktam Ratri Suktam
      e--Tantroktam Ratri Suktam
      f---Shri Devi Atharvashirsham
      g--Navarna Vidhi
      h--Saptashati Nyasah
5** Shri Durga Saptashati

 First Chapter - Medha Rishi ka Raja Suratha aur Samadhi ko Bhagawati ki Mahima Batate hue Madhu-Kaitabha-Vadhaka-Prasanga sunana
Second Chapter - Devataon ke Teja se Devi ka Pradurbhava aur Mahishasura ki Sena ka Vadha
Third Chapter - Senapatiyon sahit Mahishasura ka Vadha
Fourth Chapter - Indradi Devataon dwara Devi ki Stuti
Fifth Chapter - Devataon dwara Devi ki Stuti, Chanda-Munda ke Mukha se Ambika ke Rupa ki prashansha sunkara Shumbha ka unke pasa Duta bhejana aur Duta ka nirasha lautana
Sixth Chapter - Dhumralochana Vadha
Seventh Chapter - Chanda aur Munda ka Vadha
Eighth Chapter - Raktabija Vadha
Ninth Chapter - Nishumbha Vadha
Tenth Chapter - Shumbha Vadha
Eleventh Chapter - Devataon dwara Devi ki Stuti tatha Devi dwara Devataon ko Vardana
Twelfth Chapter - Devi Charitron ke patha ka Mahatmya
Thirteenth Chapter - Suratha aur Vaishya ko Devi ka Vardana

6** Upasamhara

*Rigvedoktam Devi Suktam
*Tantroktam Devi Suktam
*Pradhanikam Rahasyam
*Vaikritikam Rahasyam
*Murti Rahasyam

7** Kshama Prarthana
8** Shri Durga Manasa Puja
9** Durga Dwatrimsha Namamala
10** Devi Aparadha Kshamapana Stotram
11** Siddha Kunjika Stotram
12** Siddha Samput Mantra
13** Shri Deviji Ki Aarti
14** Shri Ambaji Ki Aarti
15** Devimayi

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Path Vidhi:

Day
Chapter (Adhyay)
Topic
1st
1
Madhu kaitabha samhaara
2nd
2,3,4,
Mahishhasura samhaara
3rd
5,6
Dhuumralochana vadha
4th
7
Chanda Munda vadha
5th
8
Rakta biija samhaara
6th
9,10
Shumbha Nishumbha vadha
7th
11
Praise of Narayani
8th
12
Phalastuti
9th
13
Blessings to Suratha and the Merchant
10th
14
Aparadha Kshamaprarthana

NOTE:

*Do not forget the recite Siddha Kunjika Stotram after reading every chapters.

*Siddha Kunjika Stotram alone provides all the benefits of Durga SaptaShati.

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Here I am presenting some very useful mantras with meaning:

माँ दुर्गा के लोक कल्याणकारी सिद्ध मन्त्र

दुर्गा सप्तशती में कुछ ऐसे भी स्तोत्र एवं मंत्र हैं, जिनके विधिवत पारायण से इच्छित मनोकामना की पूर्ति होती है। इन मंत्रों को संपुट मंत्रों के उपयोग में लिया जा सकता है अथवा कार्य सिद्धि के लिये स्वतंत्र रुप से भी इनका उपयोग किया जा सकता है। 


१॰ बाधामुक्त होकर धन-पुत्रादि की प्राप्ति के लिये

सर्वाबाधाविनिर्मुक्तो धनधान्यसुतान्वित:
मनुष्यो मत्प्रसादेन भविष्यति संशय:
(अ॰१२,श्लो॰१३)

अर्थ :- मनुष्य मेरे प्रसाद से सब बाधाओं से मुक्त तथा धन, धान्य एवं पुत्र से सम्पन्न होगा- इसमें तनिक भी संदेह नहीं है।

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२॰ बन्दी को जेल से छुड़ाने हेतु

राज्ञा क्रुद्धेन चाज्ञप्तो वध्यो बन्धगतोऽपि वा।
आघूर्णितो वा वातेन स्थितः पोते महार्णवे।।
(अ॰१२, श्लो॰२७)

अर्थ :- कुपित राजा के आदेश से वध या बन्धन के स्थान में ले जाये जाने पर अथवा महासागर में नाव पर बैठने के बाद भारी तूफान से नाव के डगमगाने पर जो मनुष्य मेरे (देवी के) चरित्र का स्मरण करता है वह संकट से मुक्त हो जाता है।

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 ३॰ सब प्रकार के कल्याण के लिये

सर्वमङ्गलमङ्गल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके।
शरण्ये त्र्यम्बके गौरि नारायणि नमोऽस्तु ते॥
(अ॰११, श्लो॰१०)

अर्थ :- नारायणी! तुम सब प्रकार का मङ्गल प्रदान करनेवाली मङ्गलमयी हो। कल्याणदायिनी शिवा हो। सब पुरुषार्थो को सिद्ध करनेवाली, शरणागतवत्सला, तीन नेत्रोंवाली एवं गौरी हो। तुम्हें नमस्कार है।

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४॰ दारिद्र्य-दु:खादिनाश के लिये


दुर्गे स्मृता हरसि भीतिमशेषजन्तो:
स्वस्थै: स्मृता मतिमतीव शुभां ददासि।
दारिद्र्यदु:खभयहारिणि का त्वदन्या
सर्वोपकारकरणाय सदाऽऽर्द्रचित्ता॥
(अ॰४,श्लो॰१७)

अर्थ :- माँ दुर्गे! आप स्मरण करने पर सब प्राणियों का भय हर लेती हैं और स्वस्थ पुरषों द्वारा चिन्तन करने पर उन्हें परम कल्याणमयी बुद्धि प्रदान करती हैं। दु:, दरिद्रता और भय हरनेवाली देवि! आपके सिवा दूसरी कौन है, जिसका चित्त सबका उपकार करने के लिये सदा ही दयार्द्र रहता हो।

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४॰ वित्त, समृद्धि, वैभव एवं दर्शन हेतु

भगवत्या कृतं सर्वं न किंचिदवशिष्यते ॥३४
यदयं निहतःशत्रुरस्माकमं महिषासुर ।
“यदि चापि वरो देयस्त्वयास्माकं महेश्वरि ॥३५॥
संस्मृता संस्मृता त्वं नो हिंसेथाः परमापदः।
यश्च मर्त्यः स्तवैरेभिस्त्वां स्तोष्यत्यमलानने॥३६॥
तस्य वित्तर्द्धिविभवैर्धनदारादिसम्पदाम्।
वृद्धयेऽस्मत्प्रसन्ना त्वं भवेथाः सर्वदाम्बिके ॥३७॥
(अ॰४, श्लो॰३४,३५,३६,३७)
अर्थ :-  देवता बोले – भगवती ने हमारी सब इच्छा पूरी कर दी, अब कुछ भी बाकी नहीं है। ३४क्योंकि हमारा यह शत्रु महिषासुर मारा गया । महेश्वरि ! इतने पर भी यदि आप हमें और वर देना चाहती हैं॥ ॥३५॥ तो हम जब-जब आपका स्मरण करें, तब-तब आप दर्शन देकर हम लोगों के महा संकट दूर कर दिया करें तथा प्रसन्नमुखी अम्बिके ! जो मनुष्य इन स्तोत्रों द्वारा आपकी स्तुति करे, उसे वित्त, समृद्धि और वैभव देने के साथ ही उसकी धन और स्त्री आदि सम्पत्ति को भी बढ़ाने के लिये आप सदा हम पर प्रसन्न रहें॥३६॥३७॥

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५॰ समस्त विद्याओं की और समस्त स्त्रियों में मातृभाव की प्राप्ति के लिये


विद्या: समस्तास्तव देवि भेदा: स्त्रिय: समस्ता: सकला जगत्सु।
त्वयैकया पूरितमम्बयैतत् का ते स्तुति: स्तव्यपरा परोक्ति :

(अ॰११, श्लो॰६)

अर्थ :- देवि! सम्पूर्ण विद्याएँ तुम्हारे ही भिन्न-भिन्न स्वरूप हैं। जगत् में जितनी स्त्रियाँ हैं, वे सब तुम्हारी ही मूर्तियाँ हैं। जगदम्ब! एकमात्र तुमने ही इस विश्व को व्याप्त कर रखा है। तुम्हारी स्तुति क्या हो सकती है? तुम तो स्तवन करने योग्य पदार्थो से परे एवं परा वाणी हो।

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६॰ शास्त्रार्थ विजय हेतु


विद्यासु शास्त्रेषु विवेकदीपेष्वाद्येषु का त्वदन्या।
ममत्वगर्तेऽति महान्धकारे, विभ्रामयत्येतदतीव विश्वम्।।” (अ॰११, श्लो॰३१)

र्थ :- देवि! विद्याओं में, ज्ञान को प्रकाशित करने वाले शास्त्रों में तथा आदि वाक्यों वेदों में तुम्हारे सिवा और किसका वर्णन है तथा तुमको छोड़कर दूसरी कौन ऐसी शक्ति है जो इस विश्व को अज्ञानमय घोर अन्धकार से परिपूर्ण ममतारूपी गढ़े में निरन्तर भटका रही हो।

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७॰ संतान प्राप्ति हेतु

नन्दगोपगृहे जाता यशोदागर्भ सम्भवा।
ततस्तौ नाशयिष्यामि विन्ध्याचलनिवासिनी” (अ॰११, श्लो॰४२)

अर्थ :- देवी बोलीं – तब मैं नन्दगोप के घर में उनकी पत्नी यशोदा के गर्भ से अवतीर्ण होकर विन्ध्याचल में जाकर रहूँगी और उक्त दोनों असुरों का नाश करूँगी।

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८॰ अचानक आये हुए संकट को दूर करने हेतु

इत्थं यदा यदा बाधा दानवोत्था भविष्यति।
तदा तदावतीर्याहं करिष्याम्यरिसंक्षयम्ॐ।।” (अ॰११, श्लो॰५५)

अर्थ :- देवी बोलीं – इस प्रकार जब-जब संसार में दानवी बाधा उपस्थित होगी, तब-तब अवतार लेकर मैं शत्रुओं का संहार करूँगी।

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९॰ रक्षा पाने के लिये


शूलेन पाहि नो देवि पाहि खड्गेन चाम्बिके।
घण्टास्वनेन : पाहि चापज्यानि:स्वनेन च॥

अर्थ :- देवि! आप शूल से हमारी रक्षा करें। अम्बिके! आप खड्ग से भी हमारी रक्षा करें तथा घण्टा की ध्वनि और धनुष की टंकार से भी हमलोगों की रक्षा करें।

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१०॰ शक्ति प्राप्ति के लिये

सृष्टिस्थितिविनाशानां शक्ति भूते सनातनि।
गुणाश्रये गुणमये नारायणि नमोऽस्तु ते॥

अर्थ :- तुम सृष्टि, पालन और संहार की शक्ति भूता, सनातनी देवी, गुणों का आधार तथा सर्वगुणमयी हो। नारायणि! तुम्हें नमस्कार है।

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११॰ प्रसन्नता की प्राप्ति के लिये


प्रणतानां प्रसीद त्वं देवि विश्वार्तिहारिणि।
त्रैलोक्यवासिनामीडये लोकानां वरदा भव॥

अर्थ :- विश्व की पीडा दूर करनेवाली देवि! हम तुम्हारे चरणों पर पडे हुए हैं, हमपर प्रसन्न होओ। त्रिलोकनिवासियों की पूजनीया परमेश्वरि! सब लोगों को वरदान दो।

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१२॰ विविध उपद्रवों से बचने के लिये

रक्षांसि यत्रोग्रविषाश्च नागा यत्रारयो दस्युबलानि यत्र।
दावानलो यत्र तथाब्धिमध्ये तत्र स्थिता त्वं परिपासि विश्वम्॥

अर्थ :- जहाँ राक्षस, जहाँ भयंकर विषवाले सर्प, जहाँ शत्रु, जहाँ लुटेरों की सेना और जहाँ दावानल हो, वहाँ तथा समुद्र के बीच में भी साथ रहकर तुम विश्व की रक्षा करती हो।

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१३॰ बाधा शान्ति के लिये


सर्वाबाधाप्रशमनं त्रैलोक्यस्याखिलेश्वरि।
एवमेव त्वया कार्यमस्मद्वैरिविनाशनम्॥
(अ॰११, श्लो॰३८)

अर्थ :- सर्वेश्वरि! तुम इसी प्रकार तीनों लोकों की समस्त बाधाओं को शान्त करो और हमारे शत्रुओं का नाश करती रहो।

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१४॰ सर्वविध अभ्युदय के लिये


ते सम्मता जनपदेषु धनानि तेषां तेषां यशांसि सीदति धर्मवर्ग:
धन्यास्त एव निभृतात्मजभृत्यदारा येषां सदाभ्युदयदा भवती प्रसन्ना॥

अर्थ :- सदा अभ्युदय प्रदान करनेवाली आप जिन पर प्रसन्न रहती हैं, वे ही देश में सम्मानित हैं, उन्हीं को धन और यश की प्राप्ति होती है, उन्हीं का धर्म कभी शिथिल नहीं होता तथा वे ही अपने हृष्ट-पुष्ट स्त्री, पुत्र और भृत्यों के साथ धन्य माने जाते हैं।

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१५॰ सुलक्षणा पत्नी की प्राप्ति के लिये


पत्नीं मनोरमां देहि मनोवृत्तानुसारिणीम्।
तारिणीं दुर्गसंसारसागरस्य कुलोद्भवाम्॥

अर्थ :- मन की इच्छा के अनुसार चलनेवाली मनोहर त्नी प्रदान करो, जो दुर्गम संसारसागर से तारनेवाली तथा उत्तम कुल में उत्पन्न हुई हो।

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१६॰ आरोग्य और सौभाग्य की प्राप्ति के लिये


देहि सौभाग्यमारोग्यं देहि मे परमं सुखम्।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥
(अर्गलास्तोत्रम्, श्लो॰१२)
अर्थ :- देवि! मुझे सौभाग्य और आरोग्य दो। परम सुख दो, रूप दो, जय दो, यश दो और काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो।

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१७॰ महामारी नाश के लिये


जयन्ती मङ्गला काली भद्रकाली कपालिनी।
दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा स्वधा नमोऽस्तु ते॥

अर्थ :- जयन्ती, मङ्गला, काली, भद्रकाली, कपालिनी, दुर्गा, क्षमा, शिवा, धात्री, स्वाहा और स्वधा- इन नामों से प्रसिद्ध जगदम्बिके! तुम्हें मेरा नमस्कार हो।

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१८॰ रोग नाश के लिये


रोगानशेषानपहंसि तुष्टा रुष्टा तु कामान् सकलानभीष्टान्।
त्वामाश्रितानां विपन्नराणां त्वामाश्रिता ह्याश्रयतां प्रयान्ति॥
(अ॰११, श्लो॰ २९)

अर्थ :- देवि! तुम प्रसन्न होने पर सब रोगों को नष्ट कर देती हो और कुपित होने पर मनोवाञ्छित सभी कामनाओं का नाश कर देती हो। जो लोग तुम्हारी शरण में जा चुके हैं, उन पर विपत्ति तो आती ही नहीं। तुम्हारी शरण में गये हुए मनुष्य दूसरों को शरण देनेवाले हो जाते हैं।

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१९॰ विपत्ति नाश के लिये


शरणागतदीनार्तपरित्राणपरायणे।
सर्वस्यार्तिहरे देवि नारायणि नमोऽस्तु ते॥
(अ॰११, श्लो॰१२)

अर्थ :- शरण में आये हुए दीनों एवं पीडितों की रक्षा में संलग्न रहनेवाली तथा सबकी पीडा दूर करनेवाली नारायणी देवी! तुम्हें नमस्कार है।

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२०॰ पाप नाश के लिये


हिनस्ति दैत्यतेजांसि स्वनेनापूर्य या जगत्।
सा घण्टा पातु नो देवि पापेभ्योऽन: सुतानिव॥

अर्थ :- देवि! जो अपनी ध्वनि से सम्पूर्ण जगत् को व्याप्त करके दैत्यों के तेज नष्ट किये देता है, वह तुम्हारा घण्टा हमलोगों की पापों से उसी प्रकार रक्षा करे, जैसे माता अपने पुत्रों की बुरे कर्मो से रक्षा करती है।

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२१॰ विपत्तिनाश और शुभ की प्राप्ति के लिये


करोतु सा : शुभहेतुरीश्वरी
शुभानि भद्राण्यभिहन्तु चापद:

अर्थ :- वह कल्याण की साधनभूता ईश्वरी हमारा कल्याण और मङ्गल करे तथा सारी आपत्तियों का नाश कर डाले।

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२२॰ विश्व की रक्षा के लिये


या श्री: स्वयं सुकृतिनां भवनेष्वलक्ष्मी:
पापात्मनां कृतधियां हृदयेषु बुद्धि:
श्रद्धा सतां कुलजनप्रभवस्य लज्जा
तां त्वां नता: स्म परिपालय देवि विश्वम्॥

अर्थ :- जो पुण्यात्माओं के घरों में स्वयं ही लक्ष्मीरूप से, पापियों के यहाँ दरिद्रतारूप से, शुद्ध अन्त:करणवाले पुरुषों के हृदय में बुद्धिरूप से, सत्पुरुषों में श्रद्धारूप से तथा कुलीन मनुष्य में लज्जारूप से निवास करती हैं, उन आप भगवती दुर्गा को हम नमस्कार करते हैं। देवि! आप सम्पूर्ण विश्व का पालन कीजिये।

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२३॰ विश्व के अभ्युदय के लिये


विश्वेश्वरि त्वं परिपासि विश्वं
विश्वात्मिका धारयसीति विश्वम्।
विश्वेशवन्द्या भवती भवन्ति
विश्वाश्रया ये त्वयि भक्ति नम्रा:

अर्थ :- विश्वेश्वरि! तुम विश्व का पालन करती हो। विश्वरूपा हो, इसलिये सम्पूर्ण विश्व को धारण करती हो। तुम भगवान् विश्वनाथ की भी वन्दनीया हो। जो लोग भक्तिपूर्वक तुम्हारे सामने मस्तक झुकाते हैं, वे सम्पूर्ण विश्व को आश्रय देनेवाले होते हैं।

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२४॰ विश्वव्यापी विपत्तियों के नाश के लिये


देवि प्रपन्नार्तिहरे प्रसीद
प्रसीद मातर्जगतोऽखिलस्य।
प्रसीद विश्वेश्वरि पाहि विश्वं
त्वमीश्वरी देवि चराचरस्य॥

अर्थ :- शरणागत की पीडा दूर करनेवाली देवि! हमपर प्रसन्न होओ। सम्पूर्ण जगत् की माता! प्रसन्न होओ। विश्वेश्वरि! विश्व की रक्षा करो। देवितुम्हीं चराचर जगत् की अधीश्वरी हो।

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२५॰ विश्व के पाप-ताप निवारण के लिये


देवि प्रसीद परिपालय नोऽरिभीतेर्नित्यं यथासुरवधादधुनैव सद्य:
पापानि सर्वजगतां प्रशमं नयाशु उत्पातपाकजनितांश्च महोपसर्गान्॥

अर्थ :- देवि! प्रसन्न होओ। जैसे इस समय असुरों का वध करके तुमने शीघ्र ही हमारी रक्षा की है, उसी प्रकार सदा हमें शत्रुओं के भय से बचाओ।
सम्पूर्ण जगत् का पाप नष्ट कर दो और उत्पात एवं पापों के फलस्वरूप प्राप्त होनेवाले महामारी आदि बडे-बडे उपद्रवों को शीघ्र दूर करो।
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२६॰ विश्व के अशुभ तथा भय का विनाश करने के लिये


यस्या: प्रभावमतुलं भगवाननन्तो
ब्रह्मा हरश्च हि वक्तु मलं बलं च।
सा चण्डिकाखिलजगत्परिपालनाय
नाशाय चाशुभभयस्य मतिं करोतु॥

अर्थ :- जिनके अनुपम प्रभाव और बल का वर्णन करने में भगवान् शेषनाग, ब्रह्माजी तथा महादेवजी भी समर्थ नहीं हैं, वे भगवती चण्डिका सम्पूर्ण जगत् का पालन एवं अशुभ भय का नाश करने का विचार करें।

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२७॰ सामूहिक कल्याण के लिये


देव्या यया ततमिदं जगदात्मशक्त्या
निश्शेषदेवगणशक्ति समूहमूत्र्या।
तामम्बिकामखिलदेवमहर्षिपूज्यां
भक्त्या नता: स्म विदधातु शुभानि सा :

अर्थ :- सम्पूर्ण देवताओं की शक्ति का समुदाय ही जिनका स्वरूप है तथा जिन देवी ने अपनी शक्ति से सम्पूर्ण जगत् को व्याप्त कर रखा है, समस्त देवताओं और महर्षियों की पूजनीया उन जगदम्बा को हम भक्ति पूर्वक नमस्कार करते हैं। वे हमलोगों का कल्याण करें।

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२८॰ भुक्ति-मुक्ति की प्राप्ति के लिये


विधेहि देवि कल्याणं विधेहि परमां श्रियम्।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥

अर्थ :- हे देवि!  मेरा कल्याण करो। मुझे उत्तम सम्पत्ति प्रदान करो। रूप दो, जय दो, यश दो और काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो।

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२९॰ पापनाश तथा भक्ति की प्राप्ति के लिये


नतेभ्यः सर्वदा भक्तया चण्डिके दुरितापहे।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥

अर्थ :- हे पापों को दूर करने वाली चण्डिके ! जो भक्ति पूर्वक तुम्हारे चरणों में सर्वदा मस्तक झुकाते हैं उन्हें रूप दो जय दो यश दो और उनके कामक्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो।

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३०॰ स्वर्ग और मोक्ष की प्राप्ति के लिये


सर्वभूता यदा देवि स्वर्गमुक्तिप्रदायिनी।
त्वं स्तुता स्तुतये का वा भवन्तु परमोक्तयः॥
 (अ॰११, श्लो॰७)

अर्थ :- जब तुम सर्वस्वरूपादेवी स्वर्ग तथा मोक्ष प्रदान करने वाली हो, तब इसी रूप में तुम्हारी स्तुति हो गई। तुम्हारी स्तुति क लिए इससे अच्छी उक्तियाँ और क्या हो सकती हैं?

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३१॰ स्वर्ग और मुक्ति के लिये

सर्वस्य बुद्धिरुपेण जनस्य ह्रदि संस्थिते।
स्वर्गापवर्गदे देवि नारायणि नमोस्तुऽते॥
(अ॰११, श्लो॰ )

अर्थ :- बुद्धिरूप से सब लोगों के हृदय में विराजमान रहने वाली तथा स्वर्ग एवं मोक्ष प्रदान करने वाली नारायणी देवी, तुम्हें नमस्कार है।

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३२॰ मोक्ष की प्राप्ति के लिये

त्वं वैष्णवी शक्तिरनन्तवीर्या
विश्वस्य बीजं परमासि माया।
सम्मोहितं देवि समस्तमेतत्
त्वं वै प्रसन्ना भुवि मुक्तिहेतुः॥

(अ॰११, श्लो॰ )

अर्थ :- तुम अनन्त बल सम्पन्न वैष्णवी शक्ति हो इस विश्व की कारणभूता परामाया हो तुमने इस समस्त जगत को मोहित कर रखा है।

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३३॰ स्वप्न में सिद्धि-असिद्धि जानने के लिये

दुर्गे देवि नमस्तुभ्यं सर्वकामार्थसाधिके।
मम सिद्धिमसिद्धिं वा स्वप्ने सर्वं प्रदर्शय॥

अर्थ :- हे सब पुरुषार्थों को सिद्ध करने वाली दुर्गा देवी, आपको नमस्कार है,
आपकी कृपा से मेरे सपनों में सिद्ध और असिद्ध होने वाले सब कामों का
का प्रदर्शन होवे।

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३४॰  प्रबल आकर्षण हेतु

महामायां हरेश्चैषा तया संमोह्यते जगत्,
ज्ञानिनामपि चेतांसि देवि भगवती हि सा।
बलादाकृष्य मोहाय महामाया प्रयच्छति।।
(अ॰१, श्लो॰५५)
अर्थ :- जगदीश्वर भगवान विष्णु की योग निद्रारूपा जो भगवती महामाया देवी ज्ञानियों के भी चित्त को बलपूर्वक खींचकर मोह में डाल देती हैं।

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३५॰ भय नाश के लिये

सर्वस्वरूपे सर्वेशे सर्वशक्ति समन्विते।
भयेभ्याहि नो देवि दुर्गे देवि नमोऽस्तु ते॥


अर्थ :- सर्वस्वरूपा, सर्वेश्वरी तथा सब प्रकार की शक्ति यों से सम्पन्न दिव्यरूपा दुर्गे देवि! सब भयों से हमारी रक्षा करो; तुम्हें नमस्कार है।

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३६॰ भय नाश के लिये


एतत्ते वदनं सौम्यं लोचनत्रयभूषितम्।
पातु : सर्वभीतिभ्य: कात्यायनि नमोऽस्तु ते॥

अर्थ :- कात्यायनी! यह तीन लोचनों से विभूषित तुम्हारा सौम्य मुख सब प्रकार के भयों से हमारी रक्षा करे। तुम्हें नमस्कार है।

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३७॰ भय नाश के लिये


ज्वालाकरालमत्युग्रमशेषासुरसूदनम्।
त्रिशूलं पातु नो भीतेर्भद्रकालि नमोऽस्तुते॥
(अ॰११, श्लो॰ २४,२५,२६)

अर्थ :- भद्रकाली! ज्वालाओं के कारण विकराल प्रतीत होनेवाला, अत्यन्त भयंकर और समस्त असुरों का संहार करनेवाला तुम्हारा त्रिशूल भय से हमें बचाये। तुम्हें नमस्कार है।

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