Hanuman Bahuk in Hindi With Meaning - 4



पालो तेरे टूक को परेहू चूक मूकिये , कूर कौड़ी दूको हौं आपनी ओर हेरिये
भोरानाथ भोरे ही सरोष होत थोरे दोष, पोषि तोषि थापि आपनी अवडेरिये ।।
अँबु तू हौं अँबुचर, अँबु तू हौं डिंभ सो , बूझिये बिलंब अवलंब मेरे तेरिये
बालक बिकल जानि पाहि प्रेम पहिचानि, तुलसी की बाँह पर लामी लूम फेरिये ।।३४।।

भावार्थ :– आपके टुकड़ों से पला हूँ, चूक पड़ने पर भी मौन हो जाइये मैं कुमार्गी दो कौड़ी का हूँ, पर आप अपनी ओर देखिये हे भोलेनाथ ! अपने भोलेपन से ही आप थोड़े से रुष्ट हो जाते हैं, सन्तुष्ट होकर मेरा पालन करके मुझे बसाइये, अपना सेवक समझकर दुर्दशा कीजिये आप जल हैं तो मैं मछली हूँ, आप माता हैं तो मैं छोटा बालक हूँ, देरी कीजिये, मुझको आपका ही सहारा है बच्चे को व्याकुल जानकर प्रेम की पहचान करके रक्षा कीजिये, तुलसी की बाँह पर अपनी लम्बी पूँछ फेरिये (जिससे पीड़ा निर्मूल हो जावे) ।।३४।।
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घेरि लियो रोगनि, कुजोगनि, कुलोगनि ज्यौं, बासर जलद घन घटा धुकि धाई है
बरसत बारि पीर जारिये जवासे जस, रोष बिनु दोष धूम-मूल मलिनाई है ।।
करुनानिधान हनुमान महा बलवान, हेरि हँसि हाँकि फूँकि फौजैं ते उड़ाई है
खाये हुतो तुलसी कुरोग राढ़ राकसनि, केसरी किसोर राखे बीर बरिआई है ।।३५।।

भावार्थ :- रोगों, बुरे योगों और दुष्ट लोगों ने मुझे इस प्रकार घेर लिया है जैसे दिन में बादलों का घना समूह झपटकर आकाश में दौड़ता है पीड़ा-रुपी जल बरसाकर इन्होंने क्रोध करके बिना अपराध यशरुपी जवासे को अग्नि की तरह झुलसकर मूर्च्छित कर दिया है हे दया-निधान महाबलवान् हनुमान् जी ! आप हँसकर निहारिये और ललकारकर विपक्ष की सेना को अपनी फूँक से उड़ा दीजिये हे केशरीकिशोर वीर ! तुलसी को कुरोग-रुपी निर्दय राक्षस ने खा लिया था, आपने जोरावरी से मेरी रक्षा की है ।।३५।।

सवैया:

राम गुलाम तु ही हनुमान गोसाँई सुसाँई सदा अनुकूलो
पाल्यो हौं बाल ज्यों आखर दू पितु मातु सों मंगल मोद समूलो ।।
बाँह की बेदन बाँह पगार पुकारत आरत आनँद भूलो
श्री रघुबीर निवारिये पीर रहौं दरबार परो लटि लूलो ।।३६।।

भावार्थ :- हे गोस्वामी हनुमान् जी ! आप श्रेष्ठ स्वामी और सदा श्रीरामचन्द्रजी के सेवकों के पक्ष में रहने वाले हैं आनन्द-मंगल के मूल दोनों अक्षरों (राम-राम) – ने माता-पिता के समान मेरा पालन किया है हे बाहुपगार (भुजाओं का आश्रय देने वाले)! बाहु की पीड़ा से मैं सारा आनन्द भुलाकर दुःखी होकर पुकार रहा हूँ हे रघुकुल के वीर ! पीड़ा को दूर कीजिये, जिससे दुर्बल और पंगु होकर भी आपके दरबार में पड़ा रहूँ ।।३६।।

घनाक्षरी:

काल की करालता करम कठिनाई कीधौं, पाप के प्रभाव की सुभाय बाय बावरे
बेदन कुभाँति सो सही जाति राति दिन, सोई बाँह गही जो गही समीर डाबरे ।।
लायो तरु तुलसी तिहारो सो निहारि बारि, सींचिये मलीन भो तयो है तिहुँ तावरे
भूतनि की आपनी पराये की कृपा निधान, जानियत सबही की रीति राम रावरे ।।३७।।

भावार्थ :– जाने काल की भयानकता है कि कर्मों की कठीनता है, पाप का प्रभाव है अथवा स्वाभाविक बात की उन्मत्तता है रात-दिन बुरी तरह की पीड़ा हो रही है, जो सही नहीं जाती और उसी बाँह को पकड़े हुए हैं जिसको पवनकुमार ने पकड़ा था तुलसीरुपी वृक्ष आपका ही लगाया हुआ है यह तीनों तापों की ज्वाला से झुलसकर मुरझा गया है, इसकी ओर निहारकर कृपारुपी जल से सींचिये हे दयानिधान रामचन्द्रजी आप भूतों की, अपनी और विरानेकी सबकी रीति जानते हैं ।।३७।।
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पाँय पीर पेट पीर बाँह पीर मुँह पीर, जरजर सकल पीर मई है
देव भूत पितर करम खल काल ग्रह, मोहि पर दवरि दमानक सी दई है ।।
हौं तो बिनु मोल के बिकानो बलि बारेही तें, ओट राम नाम की ललाट लिखि लई है
कुँभज के किंकर बिकल बूढ़े गोखुरनि, हाय राम राय ऐसी हाल कहूँ भई है ।।३८।।

भावार्थ :- पाँव की पीड़ा, पेट की पीड़ा, बाहु की पीड़ा और मुख की पीड़ासारा शरीर पीड़ामय होकर जीर्ण-शीर्ण हो गया है देवता, प्रेत, पितर, कर्म, काल और दुष्टग्रहसब साथ ही दौरा करके मुझ पर तोपों की बाड़-सी दे रहे हैं बलि जाता हूँ मैं तो लड़कपन से ही आपके हाथ बिना मोल बिका हुआ हूँ और अपने कपाल में रामनाम का आधार लिख लिया है हाय राजा रामचन्द्रजी ! कहीं ऐसी दशा भी हुई है कि अगस्त्य मुनि का सेवक गाय के खुर में डूब गया हो ।।३८।
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बाहुक-सुबाहु नीच लीचर-मरीच मिलि, मुँहपीर केतुजा कुरोग जातुधान हैं
राम नाम जगजाप कियो चहों सानुराग, काल कैसे दूत भूत कहा मेरे मान हैं ।।
सुमिरे सहाय राम लखन आखर दोऊ, जिनके समूह साके जागत जहान हैं
तुलसी सँभारि ताड़का सँहारि भारि भट, बेधे बरगद से बनाइ बानवान हैं ।।३९।।

भावार्थ :– बाहु की पीड़ा रुप नीच सुबाहु और देह की अशक्तिरुप मारीच राक्षस और ताड़कारुपिणी मुख की पीड़ा एवं अन्यान्य बुरे रोगरुप राक्षसों से मिले हुए हैं मैं रामनाम का जपरुपी यज्ञ प्रेम के साथ करना चाहता हूँ, पर कालदूत के समान ये भूत क्या मेरे काबू के हैं ? (कदापि नहीं ) संसार में जिनकी बड़ी नामवरी हो रही है वे (रा और ) दोनों अक्षर स्मरण करने पर मेरी सहायता जरेंगे हे तुलसी ! तु ताड़का का वध करने वाले भारी योद्धा का स्मरण के, वह इन्हें अपने बाण का निशाना बनाकर बड़ के फल के समान भेदन (स्थान-च्युत) कर देंगे ।।३९।।
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बालपने सूधे मन राम सनमुख भयो, राम नाम लेत माँगि खात टूकटाक हौं
परयो लोक-रीति में पुनीत प्रीति राम राय, मोह बस बैठो तोरि तरकि तराक हौं ।।
खोटे-खोटे आचरन आचरत अपनायो, अंजनी कुमार सोध्यो रामपानि पाक हौं
तुलसी गुसाँई भयो भोंडे दिन भूल गयो, ताको फल पावत निदान परिपाक हौं ।।४०।।

भावार्थ :– मैं बाल्यावस्था से ही सीधे मन से श्रीरामचन्द्रजी के सम्मुख हुआ, मुँह से राम नाम लेता टुकड़ा-टुकड़ी माँगकर खाता था (फिर युवावस्था में) लोकरीति में पड़कर अज्ञानवश राजा रामचन्द्रजी के चरणों की पवित्र प्रीति को चटपट (संसार में) कूदकर तोड़ बैठा उस समय, खोटे-खोटे आचरणों को करते हुए मुझे अंजनीकुमार ने अपनाया और रामचन्द्रजी के पुनीत हाथों से मेरा सुधार करवाया तुलसी गोसाईं हुआ, पिछले खराब दिन भुला दिये, आखिर उसी का फल आज अच्छी तरह पा रहा हूँ ।।४०।।
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असन-बसन-हीन बिषम-बिषाद-लीन, देखि दीन दूबरो करै हाय हाय को
तुलसी अनाथ सो सनाथ रघुनाथ कियो, दियो फल सील सिंधु आपने सुभाय को ।।
नीच यहि बीच पति पाइ भरु हाईगो, बिहाइ प्रभु भजन बचन मन काय को
ता तें तनु पेषियत घोर बरतोर मिस, फूटि फूटि निकसत लोन राम राय को ।।४१।।

भावार्थ :- जिसे भोजन-वस्त्र से रहित भयंकर विषाद में डूबा हुआ और दीन-दुर्बल देखकर ऐसा कौन था जो हाय-हाय नहीं करता था, ऐसे अनाथ तुलसी को दयासागर स्वामी रघुनाथजी ने सनाथ करके अपने स्वभाव से उत्तम फल दिया इस बीच में यह नीच जन प्रतिष्ठा पाकर फूल उठा (अपने को बड़ा समझने लगा) और तन-मन-वचन से रामजी का भजन छोड़ दिया, इसी से शरीर में से भयंकर बरतोर के बहाने रामचन्द्रजी का नमक फूट-फूटकर निकलता दिखायी दे रहा है ।।४१।।

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जीओं जग जानकी जीवन को कहाइ जन, मरिबे को बारानसी बारि सुरसरि को
तुलसी के दुहूँ हाथ मोदक हैं ऐसे ठाँउ, जाके जिये मुये सोच करिहैं लरि को ।।
मोको झूटो साँचो लोग राम को कहत सब, मेरे मन मान है हर को हरि को
भारी पीर दुसह सरीर तें बिहाल होत, सोऊ रघुबीर बिनु सकै दूर करि को ।।४२।।

भावार्थ :- जानकी-जीवन रामचन्द्रजी का दास कहलाकर संसार में जीवित रहूँ और मरने के लिये काशी तथा गंगाजल अर्थात् सुरसरि तीर है ऐसे स्थान में (जीवन-मरण से) तुलसी के दोनों हाथों में लड्डू है, जिसके जीने-मरने से लड़के भी सोच करेंगे सब लोग मुझको झूठा-सच्चा राम का ही दास कहते हैं और मेरे मन में भी इस बात का गर्व है कि मैं रामचन्द्रजी को छोड़कर शिव का भक्त हूँ, विष्णु का शरीर की भारी पीड़ा से विकल हो रहा हूँ, उसको बिना रघुनाथजी के कौन दूर कर सकता है ? ।।४२।।

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सीतापति साहेब सहाय हनुमान नित, हित उपदेश को महेस मानो गुरु कै
मानस बचन काय सरन तिहारे पाँय, तुम्हरे भरोसे सुर मैं जाने सुर कै ।।
ब्याधि भूत जनित उपाधि काहु खल की, समाधि कीजे तुलसी को जानि जन फुर कै
कपिनाथ रघुनाथ भोलानाथ भूतनाथ, रोग सिंधु क्यों डारियत गाय खुर कै ।।४३।।

भावार्थ :- हे हनुमान् जी ! स्वामी सीतानाथजी आपके नित्य ही सहायक हैं और हितोपदेश के लिये महेश मानो गुरु ही हैं मुझे तो तन, मन, वचन से आपके चरणों की ही शरण है, आपके भरोसे मैंने देवताओं को देवता करके नहीं माना रोग प्रेत द्वारा उत्पन्न अथवा किसी दुष्ट के उपद्रव से हुई पीड़ा को दूर करके तुलसी को अपना सच्चा सेवक जानकर इसकी शान्ति कीजिये हे कपिनाथ, रघुनाथ, भोलानाथ भूतनाथ ! रोगरुपी महासागर को गाय के खुर के समान क्यों नहीं कर डालते ? ।।४३।।

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कहों हनुमान सों सुजान राम राय सों, कृपानिधान संकर सों सावधान सुनिये
हरष विषाद राग रोष गुन दोष मई, बिरची बिरञ्ची सब देखियत दुनिये ।।
माया जीव काल के करम के सुभाय के, करैया राम बेद कहैं साँची मन गुनिये
तुम्ह तें कहा होय हा हा सो बुझैये मोहि, हौं हूँ रहों मौनही बयो सो जानि लुनिये ।।४४।।

भावार्थ :– मैं हनुमान् जी से, सुजान राजा राम से और कृपानिधान शंकरजी से कहता हूँ, उसे सावधान होकर सुनिये देखा जाता है कि विधाता ने सारी दुनिया को हर्ष, विषाद, राग, रोष, गुण और दोषमय बनाया है वेद कहते हैं कि माया, जीव, काल, कर्म और स्वभाव के करने वाले रामचन्द्रजी हैं इस बात को मैंने चित्त में सत्य माना है मैं विनती करता हूँ, मुझे यह समझा दीजिये कि आपसे क्या नहीं हो सकता फिर मैं भी यह जानकर चुप रहूँगा कि जो बोया है वही काटता हूँ ।।४४।।

॥इतिश्री॥

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